सलीम पहलवान का दंगल - लोनी दिसम्बर 2016
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नोटबंदी ने सम्पूर्ण भारत में जीवन अस्त व्यस्त कर दिया हैं। इसका असर दंगलों पर भी पड़ना लाजिमी हैं। दंगल कराने वाले कमेटियां सदमे में जान पड़ती हैं , क्या करें क्या न करें , कुछ ने तो दंगल आगे बढ़ा दिए हैं , जैसे प्रो रेसलिंग लीग और कुछ ने तो कैंसिल ही कर दिए हैं। अभी कुछ कहना मुश्किल हैं , ऐसा लगता है की अब दंगल बहुत कम हो जाएंगे।
हाँ कुछ लोगों के लिए ये अपवाद जरूर हैं , उनमे से एक हैं सलीम पहलवान लोनी से। उनसे फ़ोन पर पता किया तो प्रतिमाह एक तारिख को होने वाला उनका दंगल इस बार भी होना था। मैं और टेरी दंगल देखने चल पड़े , टेरी की बड़ी इच्छा थी की इस बार उनके भारत टूर में उन्हें कम से कम एक तो दंगल देखने का मौका मिले।
जब हम लोनी पहुंचे तो दंगल शुरू था , लोग बाग़ अखाड़े के चारों और खड़े होकर , कुछ बैठ कर , कुछ आस पास की छतों पर चढ़े बैठे , दंगल देख रहे थे। दंगल में बहुत से पहलवान पहुंचे हुए थे। बाल पहलवानो की कुश्तियां अपनी चरम सीमा पर पहुँच रही थी।
लोनी का दंगल बाल पहलवानो के लिए , अपनी कुश्ती कला दिखाने का एक अच्छा अवसर हैं। यहाँ बाल पहलवान अपनी तैयारी परख सकते हैं , दर्शकों को अपनी कुश्ती कला से रोमांचित भी कर सकते हैं और शाबाशी के साथ नकद इनाम भी , और साथ में सलीम पहलवान से नकद इनाम मिलना तो तय ही हैं। कुश्ती का ये दंगल सालों से लगाते आ रहे सलीम पहलवान ने नोटबंदी में दंगल लगा कर अपने कुश्ती प्रेम का ही परिचय ही नहीं दिया बल्कि पूरे दुनिया को एक मिसाल भी दी हैं।
यूँ तो सलीम पहलवान एक नेचुरल शोमैन हैं ही , वे डरा , धमका , चुटकुले सुना या फिर कभी कभार हलकी फुलकी गाली से काम चला कर दर्शकों , पहलवानो और उनके साथ आये खलीफाओं को अनुशाशन में रखते हैं। उनके कहे शब्द किसी को चुभते भी नहीं , और माहौल को थोड़ा हल्का फुल्का भी कर देते हैं , साथ ही दर्शकों के दिमाग में अनुशाषित होने का सन्देश भी भर देते हैं।
एक नई कुश्ती शुरू होने को हैं , अभी - अभी सलीम पहलवान ने बार बार दर्शकों को चिल्ला कर चुप कर दिया हैं। खामोश ! चुप रहो ! अरे सुनो , अरे सुनो कह कर वे दर्शकों का ध्यान खींचते हैं , फिर वे मस्ती से कहते हैं की अरे ये टोपी वाले मेरे भाई होते कम हैं दीखते ज्यादा हैं , (उनका इशारा मुसलमानो की तरह हैं)। फिर कहते हैं की तुम्हे खुदा की कसम , कौन कौन मेरे साथ चलेगा ? जरूरत पड़ी पकिस्तान से लड़ने के लिए तो ? सब हाथ उठाते हैं। लंबा मैसेज होता हैं कुछ को घर जाके समझ आता हैं , कुछ मेरे कान में खुसफुसाते हैं , सलीम पहलवान सनकी हैं। लेकिन मुझे तो उनका ये सन्देश देशभक्ति से भरा लगता हैं। और मैं उनकी तारीफ करता हूँ की वे कुश्ती के साथ साथ देशी भाषा में देशभक्ति जैसी भावना को भी लोगों के दिल में जगा रहे हैं।
सभी पहलवान बढ़िया कुश्ती लड़ते हैं। हरयाणा से दो बढ़िया पहलवान केयूर और नदीम पहुंचे हैं , केयूर के हाथ नहीं मिले पर नदीम की कुश्ती एक हलके पहलवान से होती हैं। जिसमे नदीम आसानी से जीत जाते हैं। जीतने वाले पहलवानो के अलावा भी केयूर के लिए टेरी ने पांच सौ रूपये दिए , जिसे लेकर लल्लू खलीफा फरार हैं। टेरी को अखाड़े में बुलाकर सम्मान किया जाता हैं , और भीड़ टेरी की दरयादिली और भारत प्रेम पर खुश हैं , उनके साथ फोटो और सेल्फियां चलती हैं। इधर मैं अपना सामान समेटता हूँ हमेशा की तरह ये बैग अब किसी दूसरे दंगल में खुलेगा।
नोटबंदी की घुमक्कड़ी और मेरे गाँव की यात्रा
यूँ तो मैं और टेरेंस कुश्ती प्रेमी हैं। प्रतिवर्ष उनकी भारत आना और हमारा कुश्ती दंगलों में जाना एक रूटीन ही हैं। लेकिन इस बार हमने उत्तराखंड में मेरे गाँव जाने का प्लान बनाया था। कुछ रूपये इस यात्रा के लिए जमा किये थे , लेकिन उनमे से एक दो हज़ार का ही नोट मिल सका। लगभग यही हाल उनका भी था। गाडी में तेल तो डेबिट कार्ड ने भर दिया तो दिल्ली से निकले।
मेरठ और आस पास मैं तो अमूमन एक ही ढाबे पर रुकता हूँ। सो वहाँ नाश्ता पानी में दिक्कत होनी न थी। कुछ लोग रास्ते में मिले तो उनके साथ खाना खाया और बिल को बाँट लिया। बड़े अच्छे मुसाफिर थे। उनसे फेसबुक पर मिलने की बात हुई। उन्हें रुड़की छोड़ा और हरिद्वार पहुंचे। फिर वही जहाँ ठहरते थे , उन्होंने भी पुराने नोट न लेने का बोर्ड लगाया था , यहाँ डेबिट कार्ड भी न चला। फिर भी वेलकम। थोड़ा रिलैक्स किया तो गंगा माँ के दर्शन को गए। छठी शताब्दी में एक बार चीनी यात्री हुएन सांग यहां आये थे , उन्होंने जैसा गंगा किनारे का वर्णन किया आज भी वैसा ही दीखता हैं। वहीँ लोग , वही तीर्थ यात्री। गंगा आरती हो चुकी थी। फिर भी घाट पर गए , वहीँ दीपदान किया। हमारे पुरोहित आ गए , वो हमारे पूर्वजों के नामो को जानते हैं। यूँ तो हमारी बहुखंडी बिरादरी अपना रिकॉर्ड स्वयं भी रखती आयी हैं। फिर भी उनसे मिलकर अच्छा लगा। उन्होंने शांति पूजा की , और गंगा माँ से हमारी शुभ यात्रा की मंगल कामना की। उन्हें दक्षिणा देने के लिए कुछ ज्यादा तो न बचा था , लेकिन उन्हें मालूम था की नोटबंदी का थोड़ा सा असर तो होगा ही। लेकिन हरिद्वार में ऐसा कहीं दिखा नहीं। वापसी में एटीएम पर गए , ज्यादा भीड़ न थी। वहां पुराने नोट मिल गए। दो हज़ार मेरे और दो दोस्त के। अब होटल में रहने का बिल चूका सकते थे। वैसे उन्होंने कह दिया था , जब मर्जी दे देना। लेकिन अब हैं तो क्या उधर करना।
रात बढ़िया गुजरी , सुबह ऋषिकेश पहुंचे। संतो की नगरी , भांग का स्वाद , हिप्पी परंपरा , योग साधना , आश्रम , रिवर राफ्टिंग क्या नहीं हैं यहाँ। थोड़ा घूमे फिर नीलकंठ और वहां से आगे अपने गाँव की और चले। यहाँ की इकॉनमी छोटे नोट पर ही चलती आई हैं सो रास्ते में जलपान करने में कोई दिक्कत न हुई। सड़कों पर तारकोल बिछ ही चूका हैं , गाडी एक दम बढ़िया चलती हैं। चार घण्टे में अपने गाँव पहुँच गए। शाम का धुंधलका हो चूका था। गाँव में माँ अकेले रहते हैं , जब भी कोई मेरे साथ यहाँ पहुँचता हैं तो वो बहुत खुश होती हैं। कॉफी बनाई गई , गाय के ताजा दूध में। शरीर में एनर्जी और राहत आई। सूरज ढल चूका था , खुला साफ़ और तारों भरे आकाश को देखना यहीं संभव हैं , दिल्ली में अब ऐसा नहीं दीखता। अगले तीन चार दिन हम खूब घूमे , पहाड़ी चोटियों पर बने मंदिरों को देखने गए , नदी में तैरना , गाँवों में घूमना , जंगली जानवरों , पंछियों , पेड़ पौधों को देखना कैसा लगता हैं ये कोई मुझसे पूछे। यहां अपना घर हैं , और अपने गाँव के बाजार में अगर पैसा न भी हो तो चल जाता हैं , जमींदार हैं , कोई भागने वाले तो हैं नहीं , तो सामान खरीदने में असुविधा नहीं , पकाने में माँ का साथ देने में और भी मजा हैं। मित्र ने कहा , अगली दफा मुझसे माँ से खाना बनाना सीखना हैं। अपने गाँव में शान्ति हैं। हाँ टीवी पर नोट बंदी के लिये छाती पीटते लोग यहां बड़े अजीब दीखते हैं। वहीँ दूर तक पहाड़ों श्रृंखला और बर्फ से ढकी चोटियों पर नोट बंदी का असर बिलकुल नहीं दीखता। लेकिन एटीएम यहाँ भी खाली हैं। हाँ छाती पीटते लोग नहीं मिले। वापसी में दुगड्डा , कोटद्वार के एटीएम भी छाने। एक आध में नोट मिल ही गए। बड़ी सुख , शांति और मौज के साथ यात्रा हुई और पूरे एक हफ्ते के बाद आज घर लौटे।
ENGLISH VERSION
Me and Terence Brown love kushti. Every time he visits India we go and see Kushti and Dangals, but this time we decided to go to my village, Bansuli, in Pauri Gadhwal, Uttrakhand. Demonetization seemed to be a problem, but the ATM dispensing rs 2000 notes was quite a relief when we got one, we filled our car tank with credit card and came out of Delhi.
On the way we stopped at some tea joints, called Dhabas. We had no problem. We took some commuters with us. We ate well, shared the bill, every body was happy. On reaching Haridwar, again we stopped at the known one, we decided to pay by credit card but it was declined. We were let in anyway. We had a good hot shower and felt very warm and nice and good . Welcome to Haridwar, the door to the gods almighty.
After relaxing we went to the River Ganga. It was already dark by then, and looked the same as described by Hiuen Tsang, the Chinese traveler who came here in 600 A.D. The Arti, or prayer, at the Ganga was already finished. We met our clan preacher, the Purohit. Surprisingly he recognised me and told me about my ancestors. We also keep a record of our family since centuries and are the only one in India who knows who our forefathers were going back thousands of years. We did the pooja cermony at the Ganges, the preacher prayed for our happy journey. On the way back, we found an ATM with old notes, so we could pay the hotel.
The next day we stopped at Rishikesh, famous for White water river rafting, the saints ashrams, hippy culture, marijuana smokers, Yoga centres.
The famous temple of Neelkanth, Mahabgarh also is on the way. Smaller currency notes are welcome here, so we stopped had tea and snacks. When we reached home it was quite dark. My mom who lives here all alone, likes visitors. Watching the clear sky, full of stars, the peace felt like paradise. I pitied my life in Delhi , where the pollution has made life difficult.
The next few days we had a lot to enjoy, scaling the nearby mountains, visiting temples, walking to the villages, swimming in the river, visiting local markets. The effect of demonetization was nil for us.
After few days, we heard that Saleem Pahlwan was going to organize his monthly Dangal on 1st of Dec. We decided to go.
Demonetization has taken its toll on dangals too. A lot of cash is required to organize them, which is hard to get these days. Many dangals are now either postponed or cancelled. However, Salim Pahlwan was determined to organize his.
I called him to confirm if the dangal was on. When we reached the venue, Loni Border, the Dangal was on full swing. Many wrestlers had come to show their skills.
The Dangal is a good place for children to learn, juniors to get a good opponent and for a few senior wrestlers a chance to get a good cash prize.
Salim pahlwan is a good showman. He welcomes people with warmly, hugs them, and announces their names. He jokes on occasions, gets angry on occasions , asks his community to fight for the country, and motivates good moral behavior in between times and bouts.
My friend Terry contributed some money for the Dangal too, and gave some cash prize to winning wrestlers. People liked him very much. I think Terry became a star instantly his fans almost mobbed him. But he didn't mind and had his photographs taken with his fans.
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